Hindi

बुधवार, नवंबर 01, 2006

दिल्ली का मौसम भी बड़ा ही विचित्र है। गर्मियों में तो रात के बाद सीधे दोपहर हो जाती थी और सर्दियों में सुबह के बाद सीधे रात। लेकिन कुछ भी हो कोहरे से भरी इस गुलाबी सर्दी में ज़िंदगी भी खुशनुमा लगने लगती है वर्ना साल के आठ महीने तो नर्क की आग में झुलसते हुए अपने पुराने पापों की गिनती ही करते रहते हैं। लेकिन फिर ये भी लगने लगता है कि इतने पाप भी भला कैसे किए होंगे।

ऐसी ही एक सुंदर सी सुबह को मेरे रूम-मेट ने घोषणा कर दी कि वह बीमार है और इसलिए ऑफिस नही जाएगा। सामान्यतः तो बीमार होने पर लोग दुखी होते हैं लेकिन वह बड़ा ही खुश था और क्यों न हो इस शानदार मौसम का असली आनंद जो उसे मिलने वाला था। उसे गलत मत समझिये, ना ही वह कामचोर है और ना ही आलसी। वह भी कईयों की तरह इस नयी महानगरीय सभ्यता का शिकार है जहाँ अपने लिये ही कभी समय नहीं होता।

सुबह से रात तक दिन भर की दौड़-धूप में मौसम कब बदल जाते हैं पता ही नहीं चलता। ए सी कमरों में बैठे-बैठे मौसमों को छू भी नहीं पाते। भूल ही गये हैं वो गर्मियों में रातों को टहलना, बारिश में भीगना, जाड़ों की धूप सेकना। ऐसा लगता है कि कनक तिलियों से टकराकर हमारे पुलकित पंख टूट गये हैं*।

*हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध ना गा पाऎंगे।
कनक तिलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऎंगे।

-- शिवमंगल सिंह 'सुमन'

2 Comments:

At 11:33 pm, Blogger Pratik Pandey said...

परीक्षित जी, हिन्दी ब्लॉग जगत् में आपका हार्दिक स्वागत् है। सही कहा आपने, आजकल खुद के लिए ही वक़्त निकालना सबसे मुश्किल काम है। 'सुमन' जी की बहुत सुन्दर कविता है।

 
At 10:39 am, Blogger Unknown said...

I really liked ur post, thanks for sharing. Keep writing. I discovered a good site for bloggers check out this www.blogadda.com, you can submit your blog there, you can get more auidence.

 

एक टिप्पणी भेजें

<< Home